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4 मई 2016

स्टेट्स अपडेट ऑफ मदर्स डे

                         



माँ की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं, माँ के कदमों में जन्नत है, माँ से बढ़कर कुछ भी नहीं, माँ अनमोल है--------

मदर्स डे  आते ही सोशल साइट्स पर ऐसी बहुत सी लाइनें आपको अपडेट की हुई दिखेंगी। यही नहीं बल्कि किसी भी मैगजीन , न्यूज़पेपर या मूवी कहीं भी देखिये या पढिये , माँ का यही रूप नजर आएगा ,लेकिन आज की तारीख में यदि 21वीं शताब्दी की माँ के बारे में लिखना हो तो इस तरह की लाइनें थोड़ी ओल्ड फैशन वाली लगती हैं  क्योंकि आज की मदर्स के पास सेवा करवाने का समय नहीं है , वे घर - बाहर की दोहरी जिम्मेदारी निभाते हुए तेज  रफ्तार जिंदगी के साथ चलती हैं और साथ ही स्वयं को भी उपेक्षित नहीं होने देती बल्कि अपने लुक्स , ड्रेसअप ,और हेल्थ का भी ध्यान रखती हैं। माँ के कदमों में जन्नत का तो पता नहीं लेकिन हाँ उनके कदम निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं , आज की माएं टेक्नोसेवी हैं। वे मोबाइल, टैब,व लैपटॉप जैसे गैजेट्स का इस्तेमाल करती हैं। पहले की तरह घर की चारदीवारी में रहने वाली माओं से इतर आज की मदर्स स्कूल में बच्चों का पीटीएम अटेंड करने के साथ ही टीचर्स से उनकी स्टडी प्रोग्रेस भी डिस्कस करती हैं 21वीं सदी की माँ गली-मोहल्लों के गॉसिप से हटकर, देश-दुनिया की खबरों से अपडेट रहती हैं और अपने विचारों को भी व्यक्त करती हैं अनभिज्ञता और नासमझी से इनका कोई वास्ता नहीं होता है बल्कि प्रजेंट सेंचुरी की माँ स्मार्ट व गूगल सर्चर होती है। कुकिंग टिप्स हो या न्यू रेसिपी या फिर बच्चों के कठिन मैथ्स व साइंस प्रॉब्लम्स सबको वह एक क्लिक में सॉल्व कर लेती हैं। आज की मदर्स घर-परिवार की जिम्मेदारी निभाने व बच्चों की परवरिश करने के साथ ही अपने कैरियर ग्राफ को भी बढ़ाते हुए अपनी पहचान कायम रखती हैं, जिससे उनके बच्चे अपनी मॉम के लिए प्राउड फील करें न कि सिर्फ मदर्स डे पर माँ के बारे में लिखी हुई वही पुरानी लाइनें कॉपी-पेस्ट या फॉरवर्ड करें ।   
                    
        हैप्पी मदर्स डे टू ऑल मदर 

 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    

6 नवंबर 2015

माटी का दीया


कुम्हार  के पैरों तले रौंदा गया 
फिर हाथों ने तरतीब से गढ़ा
चाक पर कई मोड़ से गुजरकर 
नाम उसको मिला इक दीया 


बंद गली की किसी 
  सीलनभरी  चौखट पर 
     उम्मीदों  का 
 टिमटिमाता दीया 
आलिशान महलों में 
तुलसी के चौबारे पर 
खुशियों का चमकता दीया 

नयी दुल्हन के हाथों से जला 
शगुन का दीया 
मंदिर के प्रांगण में अध्यात्म का 
प्रज्जवलित दीया 
तल में अँधेरा लिए 
रोशनी की 
जगमग फैलाता दीया 
माटी में मिल जाता 
जलने के बाद 
फिर माटी का दीया 

22 सितंबर 2015

ओके, हिंदी फिर मिलेंगे..........................

                        



हिंदी ,हिंदी जरा रुको तो ,कहाँ जा रही हो । मेरे जाने का समय हो गया है ,अब और नहीं रुक सकती । एक हफ्ते से ऊपर हो गया है मुझे आये ,अब रुकना ठीक नहीं ,अभी तक अखबारों में  इक्का-दुक्का खबरें मेरे बारे में आ रही थी ,पढ़कर अच्छा लगता था कि चलो अभी भी लोग मुझे याद करते हैं पर अब तो अखबारी पन्नों  पर भी मेरी यादें धूमिल पड़ गई हैं । विश्व हिंदी सम्मलेन और हिंदी दिवस के लिए मेहमान  बन कर आई थी और मेहमान समय से चला जाये वही उसके और मेजबान दोनों के लिए अच्छा होता है ,ज्यादा दिन रहने वाले मेहमान की  इज्जत नहीं होती है और वह मुझे कतई  मंजूर नहीं है .वैसे मुझे किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं है । विश्व हिंदी सम्मलेन का आयोजन आखिर मेरे लिए ही तो किया गया था । सब कुछ कितने अच्छे से निपट गया और फिर हर साल हिंदी दिवस पर मुझे कितना सम्मान मिलता है ,तो फिर क्या हुआ अगर यह सब बस एक पखवारे तक ही सिमट जाता है । कम से कम इसी बहाने तत्कालीन वर्तमान पीढ़ी  हिंदी के इतिहास से अवगत तो हो जाती है। वैसे आजकल हिंदी ब्लॉगिंग में  लोगों का रुझान बढ रहा है जिसका श्रेय काफी हद तक गूगल को भी जाता है जिसने हिंदी फॉण्ट को लिखना आसान कर दिया है और हिंदी ब्लॉगर्स को एक सुविधाजनक मंच प्रदान किया पर ज्यादातर लोग सिर्फ हिंदी लिखने के बजाय हिंदी तथा इंग्लिश  की मिलीभगत हिंग्लिश को प्रधानता देते हैं क्योंकि शुद्ध हिंदी न कोई लिखना चाहता है और न  ही  पढना ।
कबीर जी के दोहे के तर्ज पर ,   
                      “ऐसी वाणी लिखिए मन का सब कुछ जाए बोल ,
                      औरन को समझ आए ,आपहुं निरंतर लिखत जाए ”
अर्थात , आप ऐसी भाषा में अपने विचारों को लिखिए जिसके द्वारा आप सब कुछ सुविधापूर्वक व्यक्त कर सके और पाठक को अच्छी तरह समझ में भी आए ,जिससे आप के लिखने में निरंतरता बनी रहे ,कहने का तात्पर्य यह है कि मेरा वजूद कायम है पर मेरी मौलिकता को विकृत करके .
मैं देश कि राष्ट्रभाषा हूँ ,देश की गरिमा और अस्मिता का प्रतीक हूँ । यह बात मेरे लिए काफी गौरान्वित है पर अपने ही देश के दफ्तरों  में हिंदी की  बदहाली मुझे तकलीफ देती है जबकि विदेशों में हिंदी सीखने और पढने के प्रति लोगों में उत्साह है । विश्व के करीब १५० ( 150 ) विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा पढाई जाती है और उस पर शोध भी होतें हैं । सबसे दुखदपूर्ण बात तो यह है कि प्रसिद्ध अंग्रेजी विद्यालयों में हिंदी बोलने पर बच्चों से शुल्क भी लिया जाता है । यहाँ हिंदी विषय तो पढाया जाता है परन्तु सिर्फ औपचारिक रूप से ही उसकी शिक्षा दी जाती है । हिंदी में यदि कवि परिचय देना है तो उनके जन्म व मृत्यु का सन् शिक्षिका द्वारा अंग्रेजी में ही बताया जाता है और यदि उच्चारण हिंदी में बता भी दिया गया तो लिखने की विधि अंग्रेजी ही रहती है . अब भला ऐसी स्थिति में बच्चे हिंदी कैसे सीखेंगे । इसके लिए शिक्षिकाओं को भी कहाँ तक दोषी माने , आखिर वह भी तो अंग्रेजी विद्यालयों से हिंदी का वही स्वरूप सीखी रहती हैं । खैर अब मैं चलती हूँ ,काफी वक्त हो गया है ,इन  यादों को सहेजना भी तो है और पत्र-पत्रिकाओं तथा ढ़ेरों अखबार की प्रतियाँ संभालते हुए चहरे पर संतोष का भाव लिए हिंदी चली गई ।ओके हिंदी फिर मिलेंगे ,मैं बस यही कह पाई । मैंने उसे रोका जरुर था पर कुछ बोल ही नहीं पाई क्योंकि उसकी सटीक बातों ने मेरी बोलती ही बंद कर दी लेकिन आश्चर्य तो मुझे इस बात पर हो रहा था कि उसके चहरे पर कितना संतोष था ,ऐसा नहीं है कि वो अपनी स्थिति से बहुत खुश थी लेकिन फिर भी उसने समयानुसार परिवर्तन को अपनाया । अब समझ आया कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा क्यों है ? सर्वोपरि वही होता है जो सबसे उत्तम हो और हिंदी से बेहतर कौन है ,जो विपरीत परिस्थितियों में भी सामंजस्य बनाये हुए है ।
मेरे जेहन में इकबाल जी द्वारा लिखित देशभक्ति के गीत की पंक्ति गूंजने लगी..............हिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा....................

7 जून 2015

फैल गई मैगी नूडल्स

                                                            
वाह!क्या कहने है मैगी के,हर दिल अजीज तो था ही पर अब तो जिन दिलों को नापसंद था वह भी आजकल मैगी की ही बातें करते नजर आते हैं।जिस तरह से मैगी पानी में डालते ही फ़ैल जाती है उसी तरह मैगी में पाई जानेवाली लेड की अधिकता की चर्चा हर तरफ फैली हुई है। वो अमिताभ बच्चन जी का एक गाना है न कि “जिसका बड़ा नाम है वही तो बदनाम है”,आज मैगी का भी यही हाल है. देश में लगभग सभी जगहों पर की गई मैगी की जाँच में लेड की अधिकता पाई गई है,परिणामस्वरूप मैगी पर बैन लग गया है।अभी भी बहुत जगहों पर मैगी की जाँच चल रही है।इसका अर्थ ये हुआ कि हम थोड़े जागरुक हुए हैं , इतने सालो से तो हमारी बुद्धि कुंद हो गई थी,जो हम समझ ही नहीं पाए कि 2 मिनट में पकने वाली चीज सेहत के लिए सही भी है या नहीं। चाय भी बनने में इससे ज्यादा समय ले लेती है , खैर देर से ही सही,आनेवाली नस्लों को हम 2 मिनट का जहर तो नहीं देंगे ,लेकिन सिर्फ मैगी ही क्यों ?मैगी की तर्ज पर और भी बहुत से नूडल्स मार्केट में हैं ,क्या उनकी जाँच नहीं होनी चाहिए ? तब तो च्वाइस वाली बात हो जाएगी की ये नहीं तो कोई और सही। जब बाजार में आप्शन मौजूद है तो मैगी की कमी उपभोक्ताओं को शायद ज्यादा न खले . इसलिए जरुरी है कि बाजार में मौजूद मैगी की तरह के अन्य उत्पादों की भी जाँच की जाये। इसके लिए पहले आप वाले लखनवी अंदाज को छोड़कर हमें स्वयं पहल करनी होगी और अपने आस-पास भी जागरूकता फैलानी होगी की बाजार में हेल्दी फ़ूड ही आये। 


16 अप्रैल 2015

कृषि प्रधान देश का बदहाल कृषक


कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी है। देश की कुल श्रम शक्ति का लगभग 51% भाग  कृषि एवं उससे सम्बंधित उद्योग धंधों से अपनी जीविका चलाता है , इसके बावजूद देश में कृषकों की स्थिति दयनीय है। भारतीय कृषक बहुत कठोर जीवन जीता है। अधिकतर भारतीय कृषक निरन्तर घटते भू-क्षेत्र के कारण निम्न-स्तरीय जीवन-यापन कर रहे हैं। तपती धूप हो या कड़कड़ाती ठंड या फिर बरसते बादल ,मौसम चाहे कोई भी हो , ये किसान दिन-रात खेतों में परिश्रम करतें हैं ,फिर भी उन्हें फसलों से उचित आय नहीं प्राप्त होती।  बड़े-बड़े व्यापारी कृषकों से सस्ते मूल्य पर ख़रीदे गए खाद्यान,सब्जी एवं फलों को बाजारों में उचित दरों पर बेच देते हैं,जिससे कृषकों का श्रम लाभ किसी और को मिल जाता है और किसान अपनी किस्मत को कोसता है। आज कोई भी कृषक अपने बच्चों को एक कृषक रूप में नहीं देखना चाहता है। कृषकों यह दयनीय स्थिति निम्न पंक्तियों द्वारा प्रासंगिक हैं -------------
                 जेठ हो कि पूस,हमारे कृषकों को आराम नहीं हैं,
                वसन कहाँ,सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं हैं.

कृषकों की समस्याओं का सबसे निर्णायक बिंदु मानसून पर निर्भरता है। भारत में वर्षा की स्थिति न केवल अनियमित है बल्कि अनिश्चित भी है।  कभी वर्षा की कमी सूखे की स्थिति उत्पन्न कर देती है तो कभी-कभी वर्षा की अधिकता भी फसलों को व्यापक रूप से नुकसान पहुंचा देती है। वर्षा की अधिकता से आंधी,बाढ़,तूफ़ान व कीटों के प्रकोप जैसी आपदाएं जन्म लेती हैं। बारिश के समय किसान की मनोदशा को निम्न पंक्तियों द्वारा दर्शाया जा सकता है --------


                      मीठे दिन बरसात के खट्टी-मीठी याद.
                    एक ख़ुशी के साथ हैं सौ गहरे अवसाद.

बड़ी गंभीर विडम्बना है कि इन समस्याओं का न तो हम हल ढूंढ पाएँ हैं और न ही इन आपदाओं से बचने का समुचित तंत्र विकसित कर पाएं हैं। परिणामतः कृषक तमाम उद्यम के बावजूद निर्धनता का संजाल नहीं तोड़ पाते। अब कृषकों की बदहाली की स्थिति इस मोड़ पर पहुँच गई है कि वे आत्महत्या का रास्ता चुनने लगे हैं और जो हिम्मत दिखाकर इन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं वे भी मौसम की मार से बर्बाद हुए फसल को देखकर सदमे में आ जा रहे हैं और देश का अन्नदाता आकस्मिक मौत का शिकार हो जा रहा है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि सरकार द्वारा कृषकों  लिए जिस  सहायता की घोषणा की  है , वह या तो पर्याप्त नहीं होता अथवा कृषकों तक पहुँचते-पहुंचते  इतना देर हो जाता है कि कृषक निराशा की गर्त में चले जाते हैं। आंकड़ो के अनुसार पिछले बीस वर्षों में तीन लाख के करीब किसानों ने अपनी जान दी है .सरकार द्वारा कृषकों के मदद के लिए टीमें गठित की जाती हैं,ऋणों के भुगतान के लिए सहूलियतें भी दी जाती हैं,साथ ही बड़े राहत पैकेज के लिए घोषणा भी की जाती है परन्तु इन सब में कमजोर पहलू यह है कि सरकार इन सारी प्रक्रियाओं के क्रियान्वित रूप की सुधि नहीं लेती.मौसम का कहर तो कृषकों तो तोड़ ही देता है साथ ही सरकार का ढुलमुल रवैया भी उन्हें हताश कर देता है। 

अभी वर्त्तमान में उत्तर प्रदेश के ऊपर मौसम के दहशत भरे बादलों का जो खौफनाक कहर किसानों पर गिरा है ,उस बदहाली को तो शब्दों में बयाँ करना मुश्किल है। बारिश और आंधी ने न जाने कितने कृषक परिवारों के सपने तबाह कर दिए हैं, भविष्य के बारे में तो उनकी सोच ही खत्म हो गई है क्योंकि वे तो वर्त्तमान के दो वक्त की रोटी को भी तरस रहे हैं। सैकड़ों घरों में मातम छाया हुआ है , कृषकों की सहनशक्ति जवाब दे गई है,कोई छत से कूदकर आत्महत्या कर ले रहा है तो कोई फाँसी लगा ले रहा है या फिर जहर खाकर सदा-सदा के लिए नींद के  आगोश में समा जा रहा है और जो आत्महत्या का कदम नहीं उठा रहे हैं वे ऋण के बोझ और बर्बाद फसल को देखकर सदमें में आ जा रहे हैं , जिससे उनकी हृद्यागति रुक जा रही है। 
सरकार द्वारा रोज ही मुआवजों की घोषणा की जा रही है पर कब और कितनी मिलेगी ये अनिश्चित  है। 
मुद्दा यह है कि सरकार द्वारा समस्याओं को कम करने के लिए कोई क्रियान्वित कदम क्यों नहीं उठाया जाता है , हमारे कृषक क्यों इतने मजबूर हैं ?
हमारे देश का यह कैसा विकास हो रहा है? जहां अन्नदाता ही अन्न को तरस रहा है
शायद इन सवालों का जवाब हममें से किसी के पास नहीं हैं , हम सिर्फ मूक दर्शक बने हैं , समस्या के बारे में खबरें पढेंगे और देखेंगे फिर उसके बारे में चर्चा करेंगे और कुछ दिन बाद भूल जायेंगे। क्या हम देशवासी एकजुट होकर अपने अन्नदाता के लिए कुछ नहीं कर सकते ? क्या हम इनके लिए आवाज नहीं उठा सकते ? क्या हम इनके हक़ के लिए खड़े नहीं हो सकते ?
दुर्भाग्यपूर्ण.................शायद.....................नहीं !
मैं भी उन लोगों में से ही एक हूँ जो सिर्फ चर्चा में भाग लेते हैं या फिर एक कदम आगे जो समस्याओं के बारे में लिखकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ले। 


1 अक्टूबर 2014

कन्यापूजा ( बेटियाँ )

                                  



ओस की बूंदों सी नाजुक होतीं हैं बेटियाँ,
सबको प्यार से अपना बना लेती हैं बेटियाँ ,
दो-दो कुलों की लाज निभाती हैं बेटियाँ ,
बहू-बेटी बन सबको सभांलती हैं बेटियाँ ,

कन्या पूजा के दिन याद आती हैं बेटियाँ ,
पहले तो नाते- रिश्ते में मिल जातीं थीं बेटियाँ ,
फिर पास-पडोस से बुलाई जातीं थीं बेटियाँ ,
अब गली-मोह्हलों से ढूंढ़ कर लानी पड़ती हैं बेटियाँ ,

अगले नवरात्र में पता नहीं कहाँ मिलेंगी बेटियाँ ,
अब तो ढूढने से भी मिलती नहीं बेटियाँ ,
कन्या पूजा के दिन सिर्फ यादों में न रह जाएँ बेटियाँ ,
कहाँ से लायेगें फिर हम पूजा के लिए बेटियाँ ,

हीरा है अगर बेटा तो मोती हैं बेटियाँ ,
कहाँ से आयेगें बेटा,जब ना रहेंगी बेटियाँ ,
अब तो बेटों से बढ़ कर होने लगी हैं बेटियाँ ,
मेरी भी प्यारी-दुलारी हैं दो बेटियाँ ll

30 सितंबर 2014

नारी शक्ति पर्व ‘नवरात्र’: वेदना श्रद्धेय होने की

                        

"हम श्रद्धा के पात्र हैं क्योंकि हम बेटियाँ हैं "

बेटियाँ घर की लाज होती हैं , 

बेटियाँ सर का ताज होती हैं ,
पर लुटी जाती हैं बेटियाँ ,

 झुकाई जाती हैं बेटियाँ ,
पांव पूजे जाते हैं बेटियों के , 

चुनर ओढाई जाती है बेटियों को ,
पर बेड़ियों में बाँधी जाती हैं बेटियाँ , बेआबरू की जाती हैं बेटियाँ ,

घर संभालती हैं बेटियाँ , 

ममतामयी होती हैं बेटियाँ ,
पर अबला कही जाती हैं बेटियाँ , 

बेटों से कम प्यार पाती हैं बेटियाँ,
अन्नपूर्णा का रूप हैं बेटियाँ ,

त्याग का स्वरूप हैं बेटियाँ ,
पर भोग्या बन जातीं हैं बेटियाँ , 

कुलक्षिणी कहलातीं हैं बेटियाँ ,
बेटियों से रौशन गुलजार है , 

बेटियों से दुनिया आबाद है ,
पर अंधेरों में गुम हो जाती हैं बेटियाँ , बरबाद की जाती हैं बेटियाँ ,

घर की लक्ष्मी होती है बेटियाँ ,

पापनाशिनी दुर्गा का रूप होती हैं बेटियाँ,
पर बेचीं जाती हैं बेटियाँ , 

नाश की जाती हैं बेटियाँ ,
सभी रिश्ते निभाती हैं बेटियाँ ,

 माँ-बहन, पत्नी-बेटी हर रूप में जीतीं हैं बेटियाँ ,
पर रिश्तों में छली जातीं हैं बेटियाँ,

वहशियों को वासना का रूप नजर आती हैं बेटियाँ ,

      ll ये वेदना है हमारे श्रद्धेय होने की ll