कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी है। देश की कुल
श्रम शक्ति का लगभग 51% भाग कृषि एवं उससे सम्बंधित उद्योग धंधों से अपनी जीविका
चलाता है , इसके बावजूद देश में कृषकों की
स्थिति दयनीय है। भारतीय कृषक बहुत कठोर जीवन जीता है। अधिकतर भारतीय कृषक निरन्तर
घटते भू-क्षेत्र के कारण निम्न-स्तरीय जीवन-यापन कर रहे हैं। तपती धूप हो या
कड़कड़ाती ठंड या फिर बरसते बादल ,मौसम चाहे कोई भी हो ,
ये किसान दिन-रात खेतों में परिश्रम करतें हैं ,फिर भी उन्हें फसलों से उचित आय नहीं प्राप्त होती। बड़े-बड़े
व्यापारी कृषकों से सस्ते मूल्य पर ख़रीदे गए खाद्यान,सब्जी
एवं फलों को बाजारों में उचित दरों पर बेच देते हैं,जिससे
कृषकों का श्रम लाभ किसी और को मिल जाता है और किसान अपनी किस्मत को कोसता है। आज
कोई भी कृषक अपने बच्चों को एक कृषक रूप में नहीं देखना चाहता है। कृषकों यह दयनीय
स्थिति निम्न पंक्तियों द्वारा प्रासंगिक हैं -------------
“जेठ हो कि पूस,हमारे
कृषकों को आराम नहीं हैं,
वसन कहाँ,सूखी
रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं हैं.”
कृषकों की समस्याओं का सबसे निर्णायक बिंदु मानसून पर
निर्भरता है। भारत में वर्षा की स्थिति न केवल अनियमित है बल्कि अनिश्चित भी है।
कभी वर्षा की कमी सूखे की स्थिति उत्पन्न कर देती है तो कभी-कभी वर्षा की
अधिकता भी फसलों को व्यापक रूप से नुकसान पहुंचा देती है। वर्षा की अधिकता से आंधी,बाढ़,तूफ़ान व कीटों के प्रकोप जैसी
आपदाएं जन्म लेती हैं। बारिश के समय किसान की मनोदशा को निम्न पंक्तियों द्वारा
दर्शाया जा सकता है --------
“मीठे दिन बरसात के खट्टी-मीठी याद.
एक ख़ुशी के साथ हैं सौ गहरे अवसाद.”
बड़ी गंभीर विडम्बना है कि इन समस्याओं का न तो हम हल
ढूंढ पाएँ हैं और न ही इन आपदाओं से बचने का समुचित तंत्र विकसित कर पाएं हैं।
परिणामतः कृषक तमाम उद्यम के बावजूद निर्धनता का संजाल नहीं तोड़ पाते। अब कृषकों की बदहाली की स्थिति इस
मोड़ पर पहुँच गई है कि वे आत्महत्या का रास्ता चुनने लगे हैं और जो हिम्मत दिखाकर इन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं वे भी मौसम की मार से बर्बाद हुए फसल को देखकर सदमे में आ जा रहे हैं और देश
का अन्नदाता आकस्मिक मौत का शिकार हो जा रहा है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि सरकार
द्वारा कृषकों लिए जिस सहायता की घोषणा की
है , वह या तो पर्याप्त नहीं होता अथवा कृषकों तक
पहुँचते-पहुंचते इतना देर हो जाता है कि कृषक
निराशा की गर्त में चले जाते हैं। आंकड़ो के अनुसार पिछले बीस वर्षों में तीन लाख
के करीब किसानों ने अपनी जान दी है .सरकार द्वारा कृषकों के मदद के लिए टीमें गठित
की जाती हैं,ऋणों के भुगतान के लिए सहूलियतें भी दी जाती हैं,साथ ही बड़े राहत पैकेज के लिए घोषणा भी
की जाती है परन्तु इन सब में कमजोर पहलू यह है कि सरकार इन सारी प्रक्रियाओं के क्रियान्वित
रूप की सुधि नहीं लेती.मौसम का कहर तो कृषकों तो तोड़ ही देता है साथ ही सरकार का
ढुलमुल रवैया भी उन्हें हताश कर देता है।
अभी वर्त्तमान में उत्तर प्रदेश के ऊपर मौसम के दहशत
भरे बादलों का जो खौफनाक कहर किसानों पर गिरा है ,उस बदहाली को तो शब्दों में बयाँ
करना मुश्किल है। बारिश और आंधी ने न जाने कितने कृषक परिवारों के सपने तबाह कर दिए
हैं, भविष्य के बारे में तो उनकी सोच ही खत्म हो गई है क्योंकि वे तो वर्त्तमान के दो
वक्त की रोटी को भी तरस रहे हैं। सैकड़ों घरों में मातम छाया हुआ है , कृषकों की
सहनशक्ति जवाब दे गई है,कोई छत से कूदकर आत्महत्या कर ले रहा है तो कोई फाँसी लगा
ले रहा है या फिर जहर खाकर सदा-सदा के लिए नींद के आगोश में समा जा रहा है और जो आत्महत्या का कदम
नहीं उठा रहे हैं वे ऋण के बोझ और बर्बाद फसल को देखकर सदमें में आ जा रहे हैं ,
जिससे उनकी हृद्यागति रुक जा रही है।
सरकार द्वारा रोज ही मुआवजों की घोषणा की जा रही है
पर कब और कितनी मिलेगी ये अनिश्चित है।
मुद्दा यह है कि सरकार द्वारा समस्याओं को कम करने के
लिए कोई क्रियान्वित कदम क्यों नहीं उठाया जाता है , हमारे कृषक क्यों इतने मजबूर
हैं ?
हमारे देश का यह कैसा विकास हो रहा है? जहां
अन्नदाता ही अन्न को तरस रहा है
शायद इन सवालों का जवाब हममें से किसी के पास नहीं हैं
, हम सिर्फ मूक दर्शक बने हैं , समस्या के बारे में खबरें पढेंगे और देखेंगे फिर
उसके बारे में चर्चा करेंगे और कुछ दिन बाद भूल जायेंगे। क्या हम देशवासी एकजुट
होकर अपने अन्नदाता के लिए कुछ नहीं कर सकते ? क्या हम इनके लिए आवाज नहीं उठा
सकते ? क्या हम इनके हक़ के लिए खड़े नहीं हो सकते ?
दुर्भाग्यपूर्ण.................शायद.....................नहीं
!
मैं भी उन लोगों में से ही एक हूँ जो सिर्फ चर्चा में
भाग लेते हैं या फिर एक कदम आगे जो समस्याओं के बारे में लिखकर अपने कर्त्तव्य की
इतिश्री समझ ले।
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