19 अप्रैल 2015

संगिनी--जो संग-संग चले





जीवन के हर मोड़ पर मिली

मुझे एक नई संगिनी

छुटपन में दादी की बनाई

कपड़े की गुड़िया बनी मेरी संगिनी

आया जब सोलहवाँ बसंत तो

सखी रूप में मिली अनेक संगिनी

बासंतिक रंग छोड़ जब चढ़ा रंग यौवन का

आस-पास फैली तितलियों में जो

समरूप थीं वही बनी मेरी संगिनी

सही-गलत फर्क बताती घर में

माँ-बहन,भाभी बनी मेरी संगिनी

छोड़ संग सबका आ गया वो वक्त

जब बन गई मैं किसी की जीवन संगिनी

प्यार का बीज बोकर खूबसूरत एहसास के

पौधे को सींचा बन कर जीवनसाथी की संगिनी

दो खूबसूरत फूल अब बन गए है मेरी जिंदगी

लौट रही है फिर उसी मोड़ पर जिंदगी

आज संग दादी की गुड़िया तो नहीं पर

मैं स्वयं बन गई हूँ अपनी बेटियों की संगिनी

आएगा जब उनका सोलहवाँ बसंत चढ़ेगा जब

उन पर भी यौवन का रंग तो मिलेगी

जीवन के हर मोड़ पर एक नई संगिनी

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