27 अप्रैल 2015

तृष्णा

                                      
           


अकेलेपन की मुझको आदत नहीं 
पर अकेले रहना बन गई है फ़ितरत मेरी

भीड़ से बचने की चाहत नहीं
पर तन्हाईयाँ मुझको भाने लगी हैं 

रिश्तों की जिंदगी में कमी नहीं 
पर सबका प्यार मेरे नसीब में नहीं


खुशियाँ तो बहुत मिली जिंदगी में
पर गम भी मुझसे जुदा नहीं 


हर ख्वाहिश को मंजिल मिली 
पर अधूरी तमन्नाओं की कमी नहीं

पूरी हुई है हर ख्वाहिश 
पर मन की तृष्णा बुझी नहीं


जिंदगी में दोस्त तो अनगिनत मिले 
पर नकाबपोश दुश्मनों की भी कमी नहीं

लुभाती है जिंदगी की रंगीनियां
पर श्वेत-श्याम ही बन गई है मेरी संगिनियां

हसीन लगती है अपनी सपनों की दुनिया
पर मेरी दुनियावालों का अपना एक जहाँ है


रास्ते की मुश्किलों को पार कर खुश होता है मन मेरा
पर दुविधाओं से बचने को चाहता है 
दिल मेरा

तृप्त मन ग़र खत्म कर देगा ,तृष्णा का एहसास 
फिर भी बाकी रह जाएगी जीवन जीने की प्यास 

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